Thursday, July 15, 2021

एक दिव्याँग बच्चे को समर्पित कविता

एक दिव्याँग बच्चे को समर्पित यह कविता-

"परियों वीरों एवं प्रेमियों की कहानियां सुनने के बाद एक बच्चा अपनी मां से कहता है ।"

 

अरे मां ! ओ मां ! सुनो तो,
जमीन पर गिरते हुए
मिट्टी में सुनते हुए
मां मुझको भी आंगन में खेलना है ।

गलियों में दौड़ते हुए
सीढ़ियों को गिनते हुए
मां मुझको भी स्कूल जाना है ।

चंद्र की कलाइयों में
सूर्य की परछाइयों में
मां मुझको भी रास रचाना है ।

वर्दी पहने हुये
बंदूक तानते हुए
मां मुझको भी सीमा पर लड़ना है ।

सखा को बाहों में लिए
बच्चों को कंधों पर बिठाये हुए
मां मुझको भी परिवार बसाना है ।

पास बिठाएं हुए
हाथों से खिलाते हुए
मां मुझको भी तेरी सेवा करनी है ।

बगिया में टहलते हुए
परियों की कहानी सुनाते हुए
मां मुझको भी दद्दू बनना है ।

आंसुओं को छुपाते हुए
सिसकियों को दबाते हुए
बोल पडी मैय्या हां मेरे लल्ला हां
हां मेरे लल्ला हां ।


"चलो आज एक सफर पर चलते हैं"

"चलो आज एक सफर पर चलते हैं"

 

चलो आज एक सफर पर चलते हैं,

 

शहर की भीड़ से कहीं दूर चलते हैं

चलो आज एक सफर पर चलते हैं,

 

छोड जाते हैं दर्द को मीठी बातें करने चलते हैं

चलो आज एक सफर पर चलते हैं,

 

दम घोटते दफ्तरों से एकांत की ओर बढ़ते हैं

चलो आज एक सफर पर चलते हैं,

 

तोड़कर हर बंधन को आओ आवारा घूमते है

चलो आज एक सफर पर चलते हैं,

 

अब शाम बिताने के लिए कहीं और चलते हैं

चलो आज एक सफर पर चलते हैं,

 

विराने पहाड़ों मे आवाज टकराकर सुनने चलते हैं

चलो आज एक सफर पर चलते हैं,

 

छोड देते हैं लाज को आऔ अब बच्चे बनते हैं

चलो आज एक सफर पर चलते हैं,

 

खुद को खुद से महसूस करने चलते है

चलो आज एक सफर पर चलते हैं,

 

लौट ना सकें दुबारा, रास्तों को भूलकर बढते हैं

चलो आज एक सफर पर चलते हैं,

 

   चलो आज एक सफर पर चलते हैं.......l

 

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